google-site-verification=5o-VBZ8ZG5D9BSuJqjXj8NShPiXLbNLpu-S0x1JCo-Q स्वामी विवेकानंद के जीवन की प्रमुख घटनाएं :-

स्वामी विवेकानंद के जीवन की प्रमुख घटनाएं :-

 


नरेन्द्रनाथ की माता भुवनेश्वरीदेवी एक अत्यन्त विदुषी नारी थीं। उत्तरकाल में स्वामी विवेकानन्द ने अनेक बार कहा था, "मेरे ज्ञान के ने विकास के लिए मैं अपनी माँ का ऋणी हूँ।” उनकी शिक्षा देने की पद्धति भी अनोखी थी। एक घटना से यह स्पष्ट हो जाता है। कोई दोष ने रहने पर भी एक दिन स्कूल में नरेन्द्र को दण्ड मिला। भूगोल की कक्षा में नरेन्द्रनाथ ने सही जवाब दिया था, परन्तु शिक्षक को लगा कि उनका उत्तर गलत है। नरेन्द्र ने बार-बार प्रतिवाद किया, "मुझसे भूल नहीं हुई, मैंने ठीक ही उत्तर दिया है।” परन्तु इससे शिक्षक की क्रोधाग्नि और भी भड़क उठी, वे निर्दयता के साथ नरेन्द्र को छड़ी से पीटने लगे। घर लौटकर नरेन्द्रनाथ ने रोते-रोते माँ को सारा हाल सुनाया। माँ ने सान्त्वना देते हुए कहा, "बेटा, यदि तुम से कोई भूल न हुई हो, तो जो तुम सत्य समझते हो, उसी पर सर्वदा अडिग रहना।” माँ के इस उपदेश का परिपूर्ण रूप नरेन्द्रनाथ ने श्रीरामकृष्ण के स्वरूप में पाया था। श्रीरामकृष्ण कहते थे और आचरण करके दिखाते भी थे। 'सत्य ही कलियगु की तपस्या है।' माता और गुरुदेव, दोनों के चरित्र में सत्यनिष्ठा के आदर्श का परिचय पाकर, स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उस आदर्श का रूपायन किया। तभी परवर्तीकाल में सारे विश्व ने स्वामी विवेकानन्द से यह महाबलिष्ठ वाणी सुनी : 'सत्य के लिए सबकुछ त्याग किया जा सकता


है, परन्तु सबकुछ के लिए सत्य का त्याग नहीं किया जा सकता।' भुवनेश्वरीदेवी ने नरेन्द्रनाथ को और एक शिक्षा दी : 'आजीवन पवित्र रहना, अपनी मर्यादा की रक्षा करना, और कभी दूसरों की मर्यादाका उल्लंघन मत करना। खूब शान्त रहना। परन्तु आवश्यकता पड़ने

पर हृदय को दृढ़ कर लेना।' माता के इस शिक्षा की बदौलत स्वामीजी

ने बचपन से ही सीखा था कि किस तरह आत्मसम्मान की रक्षा 

जाती है। दूसरे को यथोचित सम्मान देने में जिस प्रकार वे संकोच नहीं

करते थे, उसी प्रकार बिना कारण कोई उनका अपमान करे, यह भी 

सहन नहीं करते थे। बालक नरेन्द्रनाथ की, एक बार उनके पिता के

एक मित्र ने अकारण अवमानना की। घर में माता-पिता कभी नरेन्द्रना

को छोटा समझकर उनकी अवज्ञा नहीं करते थे। इसलिए इस प्रकार 

व्यवहार उनके लिए नया था। अवाक् होकर वे सोचने लगे क्या आश्चर्य

की बात है— 'मेरे पिता भी मुझे इतना तुच्छ नहीं समझते, और ये मु

इतनी नीची नज़रों से देखते हैं।' जख्मी सर्प की तरह मानो फुफकारते

हुए उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा, “आप की तरह कुछ लोग हैं जो समझ

हैं कि छोटे-छोटे बालक की कोई विवेचना नहीं होती, परन्तु य

धारणा नितान्त भू

है।” नरेन्द्रनाथ का रौद्र रूप देखकर महाशय ने

अपनी भूल स्वीकार की। कठोऽपनिषद् के बालक नचिकेता के चरित्र में

ऐसी ही आत्मश्रद्धा दृष्टिगोचर होती है। नचिकेता ने कहा था : 'बहु

के मध्य मैं प्रथम अथवा मध्यम हूँ। परन्तु अधम मैं कदापि नहीं।

नचिकेता का चरित्र स्वामीजी को बहुत प्रिय था


नरेन्द्र के पिता विश्वनाथ दत्त मुक्त हस्त से दान करते थे। उन

मध्यम पुत्र महेन्द्रनाथ दत्त ने लिखा है : 'गरीबों को दान करना मानो

उनका नशा था। अपने मुहल्ले में भी वे दाता विश्वनाथ के नाम 

मशहू

थे। किसी के अर्थ संकट को देखकर वे अत्यन्त व्यथित होते

थे। इस मामले में वे बिल्कुल बेहिसाबी थे। कुछ नशाखोर उनकी दा

प्रवृत्ति का नाज़ायज़ फायदा उठाते थे। एक दिन जब नरेन्द्रनाथ ने अपने

पिता के समक्ष उनकी दानशीलता के इस अपव्यवहार की बात उठा

तो उन्होंने कहा, "जीवन कितना दुःखमय है, यह तुम अभी कैसे समझोगे? जब समझने के काबिल बनोगे तब इन पियक्कड़ों का भी,

जो अपार दुःख से क्षणिक निस्तार लाभ करने के लिए नशा करते हैं,

तुम दया की दृष्टि से देखोगे।' पिता के उपदेश का पूर्णतर रूप

नरेन्द्रनाथ ने श्रीरामकृष्ण के जीवन और वाणी में पाया था। दया की

दृष्टि, श्रद्धा की दृष्टि में बदल गई। इसका कारण यह था कि श्रीरामकृष्णदेव

ने उन्हें शिक्षा दी थी : 'दया भी छोटी है। मनुष्य ईश्वर का जीवन्त रूप

है। ईश्वर को दया दिखाने की बात भी क्या हम सोचते हैं? हम तो ईश्वर

की सेवा एवं पूजा करके धन्य हो जाते हैं। इसलिए दया नहीं, शिवज्ञान

से जीव सेवा, मनुष्य को भगवान समझकर सेवा करनी चाहिए। कोई

भी व्यक्ति घृणा का पात्र नहीं होता। जो पापी है, वह भी असल में

भगवान है। चोररूपी नारायण, लुच्चारूपी नारायण।' इसलिए उत्तरकाल

में स्वामी विवेकानन्द ने प्रत्येक व्यक्ति को श्रद्धा की दृष्टि से देखा। जो

अध:पतित हैं, उन्हें भी कहते : 'God the wicked, God the

sinner'–दुर्जन, पापी सभी भगवान हैं। संसार-रूपी नरककुण्ड में

किसी व्यक्ति को यदि थोड़ा-सा आनन्द और शान्ति दी जा सके, वही

सत्य है। यही तो आजन्म मैं अनुभव कर रहा हूँ।

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